Friday, July 29, 2011

बेवफा

Monday, 20 October 2008


बेवफा


आज मैं बहुत खुश हूँ। इतने अरसे बाद आज मैंने उसे देखा है अपने परिवार के साथ ,पूर्ण रूप से समर्पित एक गरिमामय नारी के रूप में।
ओह ! आज मैं सोचता हूँ कि मैंने क्या खोया और क्या पाया ? ज़िन्दगी के इस मुकाम पर आ कर जब सब स्थिर सा हो गया है , सब कुछ एक निश्चित
ढर्रे पर चल रहा है तो याद आते हैं वो क्षण जब मैं हताश था .वो दिन संघर्ष के थे , निराशा के थे । ज़रा सी सहानुभूति भी मुझे अपनी ओर खींच लेती थी और मैं हर उस दिशा में मुड जाता था जहाँ कोई मेरी पीड़ा समझने का दावा करता था।
वही वो वक्त था जब मैं उसकी ओर आकर्षित हुआ। उसने मुझे बहुत हिम्मत दी थी , बहुत सहारा दिया था यहाँ तक कि टूट कर चाहा था मुझे और मैंने भी बेपनाह मुहब्बत की थी पर हमारे रिश्ते का न कोई भविष्य था न ही कोई मंजिल । दोनों ही अपने दायरे में बंधे थे क्यों कि वो विवाहिता थी।
मैं इसी ऊहापोह में अपने भविष्य की तलाश में चला आया बहुत दूर , वापस न लौटने के लिए , ये सोच कर कि यदि मैं उसे खुश देखना चाहता हूँ तो मुझे उसकी ज़िन्दगी से दूर जाना ही होगा । और मैं अपने माथे पर बेवफा का दाग ले कर चला आया था उसकी ज़िन्दगी से दूर बहुत दूर.............



साभार ----संगीता स्वरुप जी उत्कृष्ट रचना है  हम आभारी है उनके

Tuesday, December 29, 2009

माँ



एक बेटे ने अपनी आत्मकथा में अपनी माँ के बारे में लिखा ;कि उसकी माँ की केवल एक आँख थी

इस कारण वह उस से नफ़रत करता था एक दिन उसके एक दोस्त ने उस से आ कर कहा कि अरे
तुम्हारी माँ कैसी दिखती है ना एक ही आँख में ? यह सुन कर वो शर्म से जैसे
ज़मीन में धंस गया दिल किया यहाँ से कही भाग जाए , छिप जाए और उस दिन उसने अपनी
माँ से कहा की यदि वो चाहती है की दुनिया में मेरी कोई हँसी ना उड़ाए तो वो यहाँ से चली जाए!
माँ ने कोई उतर नही दिया वह इतना गुस्से में था कि एक पल को भी नही सोचा की उसने माँ से क्या कह दिया हैऔर यह सुन कर उस पर क्या गुज़री होगी !कुछ समय बाद उसकी पढ़ाई खत्म हो गयी ,अच्छी नौकरी लग गई और उसने ने शादी कर ली ,एक घर भी खरीद लिया फिर उस के बच्चे भी हुए !एक दिन माँ का दिल नही माना वो सब खबर तो रखती थी अपने बेटे के बारे में और वो उन से मिलने को चली गयी उस के पोता पोती उसको देख के पहले डर गए फिर ज़ोर ज़ोर से हँसने लगे बेटा यह देख के चिल्लाया की तुमने कैसे हिम्मत की यहाँ आने की मेरे बच्चो को डराने की और वहाँ से जाने को कहा
माँ ने कहा की शायद मैं ग़लत पते पर आ गई हूँ मुझे अफ़सोस है और वो यह कह के वहाँ से चली गयी!
एक दिन पुराने स्कूल से पुनर्मिलान समरोह का एक पत्र आया बेटे ने सोचा की चलो सब से मिल के आते हैं !वो गया सबसे मिला ,यूँ ही जिज्ञासा हुई कि देखूं माँ है की नही अब भी पुराने घर में
वो वहाँ गया ..वहाँ जाने पर पता चला की अभी कुछ दिन पहले ही उसकी माँ का देहांत हो गया है
यह सुन के भी बेटे की आँख से एक भी आँसू नही टपका तभी एक पड़ोसी ने कहा की वो एक पत्र दे गयी है तुम्हारे लिए .....पत्र में माँ ने लिखा था कि ""मेरे प्यारे बेटे मैं हमेशा तुम्हारे बारे में ही सोचा करती थी और सदा तुम कैसे हो? कहाँ हो ?यह पता लगाती रहती थी उस दिन मैं तुम्हारे घर में तुम्हारे बच्चो को डराने नही आई थी बस रोक नही पाई उन्हे देखने से इस लिए आ गयी थी, मुझे बहुत दुख है की मेरे कारण तुम्हे हमेशा ही एक हीन भावना रही पर इस के बारे में मैं तुम्हे एक बात बताना चाहती हूँ की जब तुम बहुत छोटे थे तो तुम्हारी एक आँख एक दुर्घटना में चली गयी अब मै माँ होने के नाते कैसे सहन करती कि मेरा बेटा अंधेरे में रहे इस लिए मैने अपनी एक आँख तुम्हे दे दी और हमेशा यह सोच के गर्व महसूस करती रही की अब मैं अपने बेटे की आँख से दुनिया देखूँगी और मेरा बेटा अब पूरी दुनिया देख पाएगा उसके जीवन में अंधेरा नही रहेगा
 ..सस्नेह
तुम्हारी माँ """


Monday, December 21, 2009

मेरा आखिरी सफर है


बस काफी भर चुकी थी। पर अभी भी एक सीट खाली पड़ी थी। कई सवारियों ने वहाँ बैठना चाहा, पर साथ बैठा बुजुर्ग ‘सवारी बैठी है’ कहकर सिर हिला देता। बुजुर्ग ने वहाँ एक झोला रखा हुआ था।

बस चलने तक किसी ने वहाँ बैठने की ज़िद न की। लेकिन जब बस चल पड़ी, तब कुछेक ने बैठने की ज़िद पकड़ ली।
बुज़ुर्ग का एक ही जवाब था कि ‘सवारी बैठी है।’ जब कोई पूछता कि सवारी कहाँ है, तो वह झोले की तरफ इशारा कर देता। असली बात का किसी को पता नहीं लग रहा था।
कुछ सवारियाँ अनाप–शनाप बोलने लगीं, बैठे हुए कुछ लोगों ने खाली सीट पर सवारी बैठाने की बुज़ुर्ग से विनती की। बुज़ुर्ग ने फिर वही शब्द ‘सवारी बैठी है’ दोहरा दिए।
बात बढ़ गई थी। सवारियों ने ज़बर्दस्ती बैठने की कोशिश की, पर बुजुर्ग ने उन्हें आराम से मना कर दिया। वह कहीं गहरे में डूबा था। हारकर सवारियों ने कंडक्टर को सारी बात बताई।
बुजुर्ग ने ढीले हाथों से जेब में से दो टिकट निकालकर कंडक्टर को पकड़ा दिए। आँसू पोंछते हुए उसने कहा, ‘‘दूसरा टिकट मेरे जीवन–साथी का है। वह अब इस दुनिया में नहीं रही। ये उसके फूल हैं......यह जीवनसाथी के साथ मेरा आखिरी सफर है।’’.....
 

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Saturday, December 19, 2009

ऊँचाई --------रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

पिताजी के अचानक आ धमकने से पत्नी तमतमा उठी, “लगता है बूढ़े को पैसों की ज़रूरत आ पड़ी है, वर्ना यहाँ कौन आने वाला था। अपने पेट का गड्‌ढा भरता नहीं, घर वालों का कुआँ कहाँ से भरोगे?”



मैं नज़रें बचाकर दूसरी ओर देखने लगा। पिताजी नल पर हाथ-मुँह धोकर सफर की थकान दूर कर रहे थे। इस बार मेरा हाथ कुछ ज्यादा ही तंग हो गया। बड़े बेटे का जूता मुँह बा चुका है। वह स्कूल जाने के वक्त रोज़ भुनभुनाता है। पत्नी के इलाज़ के लिए पूरी दवाइयाँ नहीं खरीदी जा सकीं। बाबू जी को भी अभी आना था।


घर में बोझिल चुप्पी पसरी हुई थी। खान खा चुकने पर पिताजी ने मुझे पास बैठने का इशारा किया। मैं शंकित था कि कोई आर्थिक समस्या लेकर आए होंगे। पिताजी कुर्सी पर उकड़ू बैठ गए। एकदम बेफिक्र, “सुनो” -कहकर उन्होंने मेरा ध्यान अपनी ओर खींचा। मैं साँस रोककर उनके मुँह की ओर देखने लगा। रोम-रोम कान बनकर अगला वाक्य सुनने के लिए चौकन्ना था।


वे बोले, “खेती के काम में घड़ी भर की फ़ुर्सत नहीं मिलती है। इस बखत काम का जोर है। रात की गाड़ी से ही वापस जाऊँगा। तीन महीने से तुम्हारी कोई चिट्ठी तक नहीं मिली। जब तुम परेशान होते हो, तभी ऐसा करते हो।”


उन्होंने जेब से सौ-सौ के दस नोट निकालकर मेरी तरफ़ बढ़ा दिए- “रख लो। तुम्हारे काम आ जाएँगे। इस बार धान की फ़सल अच्छी हो गई है। घर में कोई दिक्कत नहीं है। तुम बहुत कमज़ोर लग रहे हो। ढंग से खाया-पिया करो। बहू का भी ध्यान रखो।”


मैं कुछ नहीं बोल पाया। शब्द जैसे मेरे हलक में फँसकर रह गए हों। मैं कुछ कहता इससे पूर्व ही पिताजी ने प्यार से डाँटा- “ले लो। बहुत बड़े हो गए हो क्या?”


“नहीं तो” - मैंने हाथ बढ़ाया। पिताजी ने नोट मेरी हथेली पर रख दिए। बरसों पहले पिताजी मुझे स्कूल भेजने के लिए इसी तरह हथेली पर इकन्नी टिका दिया करते थे, परन्तु तब मेरी नज़रें आज की तरह झुकी नहीं होती थीं।

Wednesday, November 25, 2009

रिश्ते का नामकरण.................. दलीप सिंह वासन






उजाड़–से रेलवे स्टेशन पर अकेली बैठी लड़की को मैंने पूछा तो उसने बताया कि वह अध्यापिका बन कर आई है। रात को स्टेशन पर ही रहेगी। प्रात: वहीं से ड्यूटी पर उपस्थित होगी। मैं गाँव में अध्यापक लगा हुआ था। पहले घट चुकी एक–दो घटनाओं के बारे में मैंने उसे जानकारी दी।

‘‘आपका रात को यहाँ ठहरना उचित नहीं है। आप मेरे साथ चलें, मैं किसी के घर में आपके ठहरने का प्रबन्ध कर देता हूं।

जब हम गाँव में से गुज़र रहे थे तो मैंने इशारा कर बताया ‘‘मैं इस चौबारे में रहता हूँ।’’ अटैची ज़मीन पर रख वह बोली, ‘‘थोड़ी देर आपके कमरे में ही ठहर जाते हैं। मैं हाथ–मुँह धोकर कपड़े बदल लूँगी।’’

बिना किसी वार्तालाप के हम दोनों कमरे में आ गए।

‘‘आपके साथ और कौन रहता है?’’

‘‘मैं अकेला ही रहता हूं।’’

‘‘बिस्तर तो दो लगे हुए हैं!’’

‘‘कभी–कभी मेरी माँ आ जाती है।’’

गुसलखाने में जाकर उसने मुँह–हाथ धोए। वस्त्र बदले। इस दौरान मैं दो कप चाय बना लाया।

‘‘आपने रसोई भी रखी हुई है?’’

‘‘यहाँ कौन–सा होटल है!’’

‘‘फिर तो मैं खाना भी यहीं खाऊँगी।’’

बातों–बातों में रात बहुत गुज़र गई थी और वह माँ वाले बिस्तर पर लेट भी गई थी।

मैं सोने का बहुत प्रयास कर रहा था, लेकिन नींद नहीं आ रही थी। मैं कई बार उठ कर उसकी चारपाई तक गया था। उस पर हैरान था। मुझ में मर्द जाग रहा था। परंतु उसमें बसी औरत गहरी नींद सोई थी।

मैं सीढि़याँ चढ़कर छत पा जाकर टहलने लग गया। कुछ देर बाद वह भी छत पर आ गई और चुपचाप टहलने लग गई।

‘‘जाओ सो जाओ, सुबह आपने ड्यूटी पर हाजि़री देनी है।’’ मैंने कहा।

‘‘आप सोए नहीं?’’

‘‘मैं बहुत देर तक सोया रहा हूँ।’’

‘‘झूठ।’’

‘‘.......’’

वह बिल्कुल मेरे सामने आ खड़ी हुई, ‘‘अगर मैं आपकी छोटी बहन होती तो आपको उनींदे नहीं रहना था।’’

‘‘नहीं–नहीं, ऐसी कोई बात नहीं,’’ और मैंने उसके सिर पर हाथ फेर दिया
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एक और डर का जन्म---------जिंदर


उस मरियल–से क्लर्क ने जेब से महीने–भर का वेतन निकाल चारपाई पर रखा और सिरहाने के नीचे से लेनदारों की लिस्ट निकाली। जोड़–घटाव करने के बाद उसके पास सिर्फ़ पचास रुपए बचे थे। पचास रुपए के आगे खड़े पूरे इकतीस दिन! कमरे में वह अकेला था, पर बच्चों की जरूरतों और पत्नी की हसरतों की लिस्ट फिल्म की रील की भाँति उसकी आँखों के आगे तेजी से घूमने लगी। पत्नी की लिस्ट पर लकीर मारते हुए उसे थोड़ी पीड़ा हुई, पर उसको इस बात का अहसास था कि ऐसा कोई पहली बार नहीं हुआ था। शशि की अधघिसी पैंट ने उसका हाथ पकड़ लिया। लेकिन पप्पी के टूटे हुए बूट ने एक ही झटके से उसका ध्यान अपनी ओर खींच लिया। अभी वह कोई फैसला नहीं कर पाया था कि पत्नी अंदर आ गई और पचास का नोट उठाकर बोली, ‘‘मुझे नहीं पता, ये तो मैं नहीं दूँगी।’’


‘‘मेरी बात तो सुन!’’

‘‘बिल्कुल नहीं।’’ पत्नी उसी रौ में बोली।

‘‘सर्दियाँ शुरू हो गई हैं और पप्पी....’’

‘‘पप्पी के बूट से ज्यादा जरूरी आपकी दवाई है।’’

आगे वह कुछ नहीं बोला। उसने गले में से उठती खाँसी को जबरन रोक लिया। कहीं उसे खाँसते देख, पत्नी डॉक्टर को बुलाने ही न चली जाए।
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सूखे पेड़ की हरी शाख -------जगदीश कश्यप

रेट तय कर वह रिक्शे में बैठ गया और सोचने लगा–- बेटे का सामना कैसे कर पाएगा। वह तो आना ही नहीं चाहता था पर रतन की माँ बोली थी–- "देखो तुम एक बाप हो। बेटे ने शादी के लिए हामी भर दी । शादी करने यहीं आएगा। मान लो वहीं घर बसाकर वह हमें भूल जाए, तब हमारा क्या होगा? सरिता तो पराए घर की है । एक न एक दिन तो उसकी शादी करनी पड़ेगी। कब तक वह नौकरी कर हमें पालती रहेगी? पूरे सत्ताइस साल की हो चुकी है।"


"उतरो साहब,यही फाइन रेस्टोरेण्ट है।" --उसे झटका–सा लगा। रिक्शे से उतर वह न्यॉन साइन–बोर्ड पढ़ने लगा। पहले नीले अक्षर, फिर लाल। धुंधलके में लकदिप रोशनी में उसने देखा कि लोग शीशे वाला दरवाज़ा धकेल कर अन्दर जा रहे थे ,तो कोई–कोई बाहर निकल रहा था। अपने सादे लिबास और सिर पर बंधे साफ़े को देख एकबारगी उसे ख़ुद पर शर्मिदगी हुई। उसे अचानक याद आया। वह कड़कता हुआ बोला था–- "मैं एक मामूली बाबू, कहाँ तक भुगतूँ इस हरामज़ादे की बदनामी? सारा दिन आवारागर्दी और पार्टी पॉलिटिक्स । क्या मैंने इसलिए पढ़ाया था इसे! जी.पी. फण्ड में अब बचा ही क्या है? निचोड़ दिया है मुझे दोनों लड़कियों की शादियों ने।"

तभी वह कार के हॉर्न से चौंक गया और हड़बड़ाकर एक ओर हट गया। कार में से एक युवक उतरा और उसने आँखों से चश्मा उतारा। बूढ़े आदमी को सामने खड़ा पाकर युवक के चेहरे पर कुछ उभर–सा आया। रतन ने अपनी जो फोटू भेजी थी उससे यह युवक कितना मिलता–जुलता लगता है। उसे फिर याद आया। उस दिन तो हद हो गई थी। पता नहीं कौन से झगड़े में रतन कमीज–पैण्ट फड़वा आया था और चेहरे पर ख़रौंचे साफ दीख रही थीं।

"निकल जा...अभी निकल मेरे घर से ! ख़ानदान की नाक कटवा दी इसने!" और उसने ज़ोर से एक लात मारी थी....

"पिताजी आप यहाँ... क्या माँ ने भेजा है?"

वह भौचक्का रह गया। रतन बड़े अदब से पिता को रेस्टोरेण्ट के भीतर ले गया और अपने केबिन में ले जाकर रिवॉल्विंग चेयर पर बैठा दिया–- "आप आराम से बैठो, पिताजी। देखो, आपके नालायक बेटे ने कितनी तरक्की की है! आने में तकलीफ़ तो नहीं हुई? मैं थोड़ा बिजी था, वरना ख़ुद आता।"

पिता के दिल में आया कि वह अपने सपूत के आगे गिरकर जार–जार रो पड़े।
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